सिद्धिर्भवति कर्मजा
Reviewed by अभिषेक त्रिपाठी (अयोध्या)
on
जुलाई 16, 2022
Rating: 5

【Q.】आज का प्रश्न है कि परीक्षा के दिनों में विद्यार्थियों का दिन रात एक करके पढ़ाई ही करते रहना लाभदायक है या नहीं.??
◆निसंदेह एग्जाम टाइम है तो मेहनत तो करनी ही चाहिए किंतु .... दिमाग को भी कुछ पल आराम की जरूरत पड़ती है।
√पढ़ाई और मनोरंजन में सामंजस्य बिठाने वाला विद्यार्थी ही अव्वल दर्जे का छात्र कहलाता है।
◆ बोर्ड परीक्षा के दौरान विद्यार्थियों को प्रायः ऐसी समस्याओं से दो-चार पड़ता है मेरा सुझाव यही है कि परीक्षाओं के समय विद्यार्थियों का मनोरंजन बंद कर देने की अपेक्षा कम कर देना ज्यादा उचित रहेगा।
◆ये सच है कि बोर्ड परीक्षाएं विद्यार्थी जीवन का एक अहम हिस्सा होती हैं जिसका असर जीवन पर्यन्त रहता है अतः विद्यार्थियों को उनकी स्वयं की तैयारी और क्षमता के अनुरूप पढ़ाई और मनोरंजन का समय निर्धारित करने से ज्यादा सकारात्मक परिणाम देखने को मिलेंगे,इस दौरान अभिभावकों का दिशा निर्देश भी काफी कारगर साबित होगा।
◆ध्यान रखें अपने बच्चों पर शासन करने के बजाय उन्हें अनुशासन में रहना सिखाएँ।जरूरत से अधिक प्रतिबंध तनाव का कारण बनता है.. अति सर्वत्र वर्जयेत
धन्यवाद
©अभिषेक त्रिपाठी अयोध्या
उपन्यास समीक्षा पार्ट 2 :- अभिषेक त्रिपाठी
गुनाहों का देवता उपन्यास में लेखक ने अनेक रंगों का भी सहारा लिया है जो कथानक को और अधिक धार देते हैं कुछ प्रमुख चुनिंदा व्यंग प्रस्तुत है..
१.कोई प्रेमी है या फिलॉस्फर... देखा ठाकुर?
:- नहीं यार उससे भी निकृष्ट जीव; कवि हैं ये, रविंद्र बिसारिया।
२. विनती के ससुर के डील डौल का वर्णन करते वक्त
इतना बड़ा पेट.. ये अभागा पलंग भी छोटा पड़ रहा है।
३. चांद कितनी ही कोशिश क्यूं ना कर ले, रात को दिन नहीं बना सकता।
४.बीच बीच में अवधी भाषा, क्षेत्रीय बोलियां पाठकों को बांधने में काफी सफल रहती हैं।
इन सबके अलावा
चंदर के व्यक्तित्व को एक पैनी दृष्टि से निहारें तो पता चलता है कार्य के प्रति समर्पण भी; उसमें कहीं कम नहीं था। जब उसे थीसिस पूरी करनी थी तो पूरे एक महीने तक सुधा से दूर रहा।
वहीं सुधा के विवाह के दौरान एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी,निर्वाह का दायित्व भी चंदर पर ही था।
चंदर का व्यक्तित्व भी समय के अनुसार दिशा और दशा तय करता था चंदर के दोस्त और विनती के ट्यूशन टीचर रविंद्र बिसारिया के, विनती के प्रति जरा सा संदेह होने पर; पूरी दृढ़ता और बेहद चतुर्यता से बिसारिया से सच उगलवाना भी कोई आसान काम नहीं था। जब भावनावश बिसारिया ने विश्व के कुछ प्रसिद्ध कृतियों एवं पात्रों जैसे शेक्सपियर की मीरांडा, प्रसाद की देवसेना, दांते की बीएत्रीसा, कीट्स की फैनी, सूर की राधा का जिक्र करते हुए, अंततः 'विनती' को भी इसी में शामिल किया और सच उगलते हुए- मैं विनती में खो सा गया हूं,बेहद डूब सा गया हूं और अपने संग्रह का नाम भी 'विनती' रख रहा हूं।
बादशाहों की मुअत्तर ख्वाबगाहों में कहां,
वह मजा जो भीगी-भीगी घास पर सोने में है,
मुइतमइन बेफ़िक्र लोगों की हंसी में भी कहां,
लुत्फ़ जो एक दूसरे को देखकर रोने में है।
निसंदेह ऐसी कहानियां बार-बार जन्म नहीं लेती।
गुनाहों का देवता उपन्यास समीक्षा
Gunahon Ka Devta Novel Review
ये आज फिजा खामोश है क्यों
हर जर्रे को आखिर होश है क्यों
या तुम ही किसी के हो न सके
या कोई तुम्हारा हो न सका
मौजें भी हमारी हो न सकी
तूफां भी हमारा हो न सका
देवता तो तुम रहे,कुछ गुनाह तुमसे भी हो गए; पर भक्तों को देवता का हर गुनाह क्षम्य होता है। ये कुछ पंक्तियां हैं जो बयां करती है कथानक की गहराई को, यह बताती हैं कि प्रेम ठहराव, दृढ़ निश्चय, विश्वास और संकल्प से अभिसिंचित होता है।
धर्मवीर भारती का बेहद सदाबहार,कालजयी उपन्यास जिसकी पृष्ठभूमि ब्रिटिश कालीन इलाहाबाद।
कथानक आधारित है सुधा और चंदर की अमर प्रेम पर।
प्रेम,समर्पण और समाज के बंधनों की कहानी,जहां प्रेम बेहद अलग तरीके, पाशविकता और वासना से कोसों दूर, प्रेम के उत्प्रेरक के रूप में झलकता है।
कुछ अन्य पात्र विनती पम्मी,गीसू, बर्टी, बिसारिया, कैलाश।
चंद्र कपूर यानी चंदर जो अपनी मां से झगड़ कर पढ़ाई के लिए प्रयाग भाग आया था। बी ए. में एडमिशन लेता है और उसके शिक्षक होते हैं डॉक्टर शुक्ला जिन के सानिध्य में बाद में वो रिसर्च स्कॉलर भी होता है। सुधा के पिता डॉ शुक्ला चंद्र कपूर यानी चंदर की आर्थिक हालत से वाकीफ, उसे अपना पुत्र तुल्य एवम् सबसे प्रिय शिष्य के रूप मे मानते थे। प्रोफ़ेसर शुक्ला के घर चंदर का बिना किसी रोक-टोक के आना जाना रहता था धीरे-धीरे सुधा से परिचय होता है कालांतर में हंसी हंसी ठिठोली भी। चंदर डॉक्टर शुक्ला के साथ उनके संगोष्ठियों में भी जाता रहता था, डॉक्टर शुक्ला को भी चंदर के करियर की हमेशा चिंता रहती थी। वहीं धीरे-धीरे सुधा और चंदर की हंसी ठिठोली का रंग कब इश्क के रंग में बदल गया पता भी नहीं चला। सुधा बेहद भोली भाली लड़की जिसकी कोमलता, अल्हड़ता और परिपक्व मन कहानी को एक माधुर्य देता है।
चंदर और सुधा का इश्क बेहद अलग अंदाज में था चंदर सुधा के लिए देवता था। कहानी में उहापोह की स्थिति तब आती है जब चंदर डॉक्टर शुक्ला के आदर्शों, उनकी मदद, उनके एहसानों से इस कदर प्रभावित हो चुका होता है कि अपने दिल की बात सुधा तक नहीं पहुंचा पता आखिर अपने आश्रय दाता को धोखा कैसे देता चंदर के मन में एक अंतर्द्वंद,बिरह, खुद से जद्दोजेहद था, एक बार तो सुधा से पूछता भी है; क्या पुरुष और नारी के संबंध का एकमात्र रास्ता प्रणय, विवाह और तृप्ति ही है। खैर चंदर अपनी बात स्पष्ट रूप से बताने में असफल रहता है वहीं सुधा ने कहीं और विवाह ना करने का निश्चय कर रखा था। वास्तविकता से अनभिज्ञ डॉक्टर शुक्ला भी थक हार कर सुधा को मनाने के लिए चंदर को जिम्मेदारी सौंपते हैं। किसी तरह से चंदर सुधा को समझाता है (कितना कुछ सहा होगा चंदर ने)।
ये चंदर की नैतिकता का परिचायक भी है।अनेक बार जीवन में कुछ ऐसी परिस्थितियां आती है जिसका समाधान त्याग ही होता है।
अंततः शादी हो जाती है सुधा अपने ससुराल जाती है लेकिन चंदर के बिना सुधा भला कैसे रह पाती। चंदर को खत भी लिखा करती है एक बार सुधा ने-चंद्र मैं तुम्हारी आत्मा थी और तुम मेरे शरीर;पता नहीं हम लोग कैसे अलग हो गए तुम्हारे बिन मैं सूक्ष्म आत्मा रह गई, शरीर की प्यास रंगीनियों सब अपरिचित हैं, और मेरे बिना तुम केवल शरीर रह गए, शरीर में डूब गए।
पाप के हिस्से में हमारा और तुम्हारा बराबर का योगदान है।
इधर प्रोफ़ेसर शुक्ला की कुछ जरूरी काम से चंदर का पम्मी के घर जाना होता है यहां उपन्यासकार ने पम्मी और चंदर के संबंधों पर एक झलक प्रस्तुत करने की कोशिश की है। हालांकि अंतरंग संबंधों की प्रस्तुतीकरण के दौरान लेखक ने पूरी सतर्कता से अश्लीलता से परे रोमांच और रोमांस का वर्णन किया है। फिर भी पूरी तरह से नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। वहीं पम्मी का भाई बर्टी जो कि प्रेम बिरह की वजह से मानसिक अस्वस्थ;जिसने अपने प्रिय तोते को तीन गोलियां मारी,और मौत के घाट उतार देता है। यह एक सांकेतिक गूढ़ है कहानी का,आगे बढ़ने पर मालूम हुआ गोलियां प्रतीक है सुधा,विनती और पम्मी का।वही तोता चंदर का रूपक है।लेखक ने बड़ी संजीदगी से पात्रों को पिरोया है।
विनती जो सुधा की बुआ की बेटी है मामा जी के घर आती है शुरू में शर्मीली मिजाज की किंतु धीरे-धीरे चंदर से घुलमिल गई, पवित्रता में सुधा जितनी या फिर कहीं ज्यादा ही।
विनती शादी ना करने इच्छा के बावजूद भी शादी करना चाहती थी वजह:- बेवजह हर वक्त घर में डांट और ताने थे। उधर सुधा ससुराल में संपन्न होने के बावजूद भी हर वक्त बिरह के गम में डूबी रहती और अस्वस्थ रही थी। और दुनिया छोड़ कर उसे जाना पड़ा किंतु जाने से पहले के आखिरी क्षण उसने चंदर के कंधे पर सर रखकर ही गुजारे अब उसे किसी की परवाह नहीं थी, परवाह की तो उसे चंदर की। अंतिम क्षण भी उसने चंद्र का ख्याल रखा। चंदर और विनती को एक होने की गुजारिश की।
जीवन का यंत्रणा चक्र एक वृत्त पूरा कर चुका था सितारे क्षितिज से उठकर आसमान पर एक छोर से दूसरे छोर पर पहुंच चुके थे। वो लगभग डेढ़ साल,वो विक्षुब्ध महासागर की भूखी लहरों की तरह हुंकार।
खैर तूफान थम चुका था,धरातल शांत,बादल खुल गए थे और सितारे फिर आसमान की घोसलों से भयभीत विहंग शावकों की तरह झांक रहे थे।
त्रिवेणी पर कार रूकती है। हल्की चांदनी मैले कफन की तरह लहरों की लाश पर पड़ी हुई थी। मल्लाह थककर पतवारों को किनारे लगा चुके थे। एक बूढ़ा बैठा चिलम पी रहा था। चंदर चुपचाप उसकी पतवार पर सवार होता है और बीच धार में गठरी खोलता है। साथ बैठी सिसक रही बिनती की मांग में एक चुटकी राख भर कर उसकी मांग को चूमता है और गठरी गंगा में फेंक देता है। लहरों में राख एक जहरीले पनियल सांप की तरह लहराती हुई अदृश्य हो जा रही थी। सितारे टूट चुके थे। तूफान थम सा गया था।
बेशक चंदर कहानी का मुख्य पात्र बनकर उभरता है "गुनाहों का देवता"।
किंतु इसमें भी कहीं संदेह नहीं सुधा भी "त्याग की देवी" थी।
इक रिदा-ए-तीरगी* है और ख़ाब-ए कायनात# !
डूबते जाते हैं तारे भीगती जाती है रात !!
*रिदा-ए -तीरगी-अंधेरे की चादर
*#खाब- ए -कायनात-जिंदगी का स्वप्न
*:- अभिषेक त्रिपाठी
पथ:a way to destination
"उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्।" भगवद्गीता का यह श्लोक हमें स्मरण कराता है कि; जीवन का प्रथम और अंतिम उद्धारक स्वयं हम ही हैं।
संघर्ष का मार्ग, जैसे महाभारत के अर्जुन को कुरुक्षेत्र में मिला, वैसे ही हर मानव को अपने भीतर का रणक्षेत्र पार करना होता है। राह में संशय के धुंध, निराशा की आँधियाँ और असफलताओं के पत्थर होंगे, पर वही विजेता बनता है जो "एकला चलो रे" के भाव से आगे बढ़ता है।
रामायण में वनवास का काल केवल दंड नहीं था, वह राम के धैर्य, त्याग और नीति की परीक्षा थी। पश्चिम की ओर देखें तो अब्राहम लिंकन की अनेक असफलताओं के बाद की विजय, एडिसन का बल्ब के लिए हज़ार प्रयास; ये सब इस तथ्य के प्रमाण हैं कि दृढ़ता ही सफलता का मूल है।
वैज्ञानिक दृष्टि से भी, विकास (Evolution) ने सिखाया है; जो अनुकूलन करता है वही टिकता है। जैसे नदियाँ चट्टानों को तोड़कर नहीं, बल्कि अपनी निरंतरता से मार्ग बनाती हैं।
मुंशी प्रेमचंद ने कहा था, "जो काम कठिन है, वही करने में मज़ा है।" फिल्मों में चक दे इंडिया का संवाद याद आता है, "सत्तर मिनट, तुम्हारे पास सत्तर मिनट हैं…" जो समय के महत्व को रेखांकित करता है।
सफलता कोई मंज़िल नहीं, बल्कि वह सतत् यात्रा है जिसमें आत्मविश्वास, सतत् प्रयास और सकारात्मक दृष्टि आपके रथ के अश्व हैं, और बाकी यश, वैभव, धन; बस रथ के पीछे चलने वाली धूल।
बढ़ते रहो, चलते रहो,
चलना तुम्हारा धर्म है..
होते क्यूँ निराश तुम?
ये तो तुम्हारा कर्म है,
मुश्किलें आती और जाती रहेंगी राह में,
क्या किसी राही का रुकना,और मिट जाना भी धर्म है?
तुममें ही मांझी छिपा है,
तुम ही वो धनुर्धर,
ये जहां होगा तुम्हारा; बस छोड़ न देना डगर।
भीड़ में से लोग, तुम पर फब्तियां भी कसेंगे।
तुम कहीं रुक न जाना;
चलना तुम्हारा धर्म है...
व्यर्थ में जाने न देना, बूँद भी इक स्वेद की;
ये बूँद ही वो मोती है, जो लक्ष्य को भेदती।
यदि हार भी गए, तो;
इसमें भला, क्या शर्म है;
बढ़ते रहो, चलते रहो, चलना तुम्हारा धर्म है..!
- पौराणिक काल से,भाई बहन के स्नेह का प्रतीक रक्षाबंधन पर्व श्रावण मास की पूर्णिमा तिथि को मनाया जाता है।
- इस दिन बहने भाइयों की कलाई पर रेशम की डोरी बांधकर भाई के सकुशल जीवन की कामना करती हैं और भाई बहन की रक्षा व मंगलमयता का संकल्प लेता है।
- बहनों द्वारा भाई की कलाई पर बांधा गया रक्षासूत्र रेशम का एक धागा मात्र नहीं,अपितु यह प्रतीक है,भारत की विविधता में एकबद्धता का।
- राखी के अलग अलग रंग विभिन्न धर्मों, सम्प्रदायों का प्रतिनिधित्व करते हैं।समाज में भ्रातृभावना और सहयोग के मूल को समेटे यह पर्व आज अपनी व्यापकता और गहराई से चिरपरिचित है।
- इस पर्व के आयोजन के विविध रूप दृष्टिगोचर होते है। प्रकृति प्रेमी वृक्षों को रक्षासूत्र में बांधते है,जिसके पीछे छिपा रहस्य प्रकृति संरक्षण से है।
- प्राचीन काल में गुरुकुल की शिक्षा पूर्ण होने के उपरांत स्नातक विदा लेते वक्त आचार्य का आशीर्वाद लेने हेतु उन्हें रक्षासूत्र बांधता था,और आचार्य भी अपने शिष्य के भावी जीवन की मंगलकामना एवं अर्जित ज्ञान का समुचित उपयोग की कामना से रक्षासूत्र बांधता था।
- इसी परंपरा के अनुरूप आज किसी भी धार्मिक अनुष्ठान के पूर्व पुरोहित द्वारा एक श्लोक
- येन बद्धो बलिराजा दानवेन्द्रो महाबल:।
- तेन त्वामपि बध्नामि रक्षे मा चल मा चल ॥
- वाचन के साथ यजमान की कलाई पर रक्षासूत्र बाँधा जाता है।
- इस सबसे इतर रक्षाबंधन के इस पावन पर्व के अनेकानेक प्रसंग प्रचलित हैं,जो देशकाल के अनुरूप पीढ़ी दर पीढ़ी चलायमान हैं।
- ©अभिषेक एन. त्रिपाठी
"परिपूर्णता की चिंता क्यों करें? चाँद भी पूर्ण नहीं है, उसमें कई गड्ढे हैं। समुद्र अनुपम सुंदर है, परंतु उसका पानी खारा है और उसकी गहरा...
Created By Themexpose · Powered by Blogger
All rights reserved