गुनाहों का देवता उपन्यास समीक्षा पार्ट 2 / Gunahon Ka Devta Novel review Part 2
उपन्यास समीक्षा पार्ट 2 :- अभिषेक त्रिपाठी
गुनाहों का देवता उपन्यास में लेखक ने अनेक रंगों का भी सहारा लिया है जो कथानक को और अधिक धार देते हैं कुछ प्रमुख चुनिंदा व्यंग प्रस्तुत है..
१.कोई प्रेमी है या फिलॉस्फर... देखा ठाकुर?
:- नहीं यार उससे भी निकृष्ट जीव; कवि हैं ये, रविंद्र बिसारिया।
२. विनती के ससुर के डील डौल का वर्णन करते वक्त
इतना बड़ा पेट.. ये अभागा पलंग भी छोटा पड़ रहा है।
३. चांद कितनी ही कोशिश क्यूं ना कर ले, रात को दिन नहीं बना सकता।
४.बीच बीच में अवधी भाषा, क्षेत्रीय बोलियां पाठकों को बांधने में काफी सफल रहती हैं।
इन सबके अलावा
चंदर के व्यक्तित्व को एक पैनी दृष्टि से निहारें तो पता चलता है कार्य के प्रति समर्पण भी; उसमें कहीं कम नहीं था। जब उसे थीसिस पूरी करनी थी तो पूरे एक महीने तक सुधा से दूर रहा।
वहीं सुधा के विवाह के दौरान एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी,निर्वाह का दायित्व भी चंदर पर ही था।
चंदर का व्यक्तित्व भी समय के अनुसार दिशा और दशा तय करता था चंदर के दोस्त और विनती के ट्यूशन टीचर रविंद्र बिसारिया के, विनती के प्रति जरा सा संदेह होने पर; पूरी दृढ़ता और बेहद चतुर्यता से बिसारिया से सच उगलवाना भी कोई आसान काम नहीं था। जब भावनावश बिसारिया ने विश्व के कुछ प्रसिद्ध कृतियों एवं पात्रों जैसे शेक्सपियर की मीरांडा, प्रसाद की देवसेना, दांते की बीएत्रीसा, कीट्स की फैनी, सूर की राधा का जिक्र करते हुए, अंततः 'विनती' को भी इसी में शामिल किया और सच उगलते हुए- मैं विनती में खो सा गया हूं,बेहद डूब सा गया हूं और अपने संग्रह का नाम भी 'विनती' रख रहा हूं।
बादशाहों की मुअत्तर ख्वाबगाहों में कहां,
वह मजा जो भीगी-भीगी घास पर सोने में है,
मुइतमइन बेफ़िक्र लोगों की हंसी में भी कहां,
लुत्फ़ जो एक दूसरे को देखकर रोने में है।
निसंदेह ऐसी कहानियां बार-बार जन्म नहीं लेती।
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