गांवों का देश कहा जाने वाला भारत,आने वाले कुछ वर्षों में शहरों का देश हो सकता है, लोग रोजगार आदि के चक्कर मे शहरों की ओर भागे जा रहे, 'शहर रोजगार तो देते हैं साथ ही तमाम समस्याओं की जड़ भी बनते जा रहे हैं मेरी ये एक रचना जो कि आज शहर की व्यथा को बयां कर रही है... व्यथित शहर मैं शहर हूँ... हरे बाग बगीचे नहीं यहां, कंक्रीट के जंगलों से घिरा, मैं शहर हूँ... विरले ही सुन पाता, पक्षियों की मधुर आवाज, दिन-भर वाहनों के शोर-शराबों में घिरा, मैं शहर हूँ... स्वच्छ स्वस्थ और ताज़ी भाजी, मिलना यहां दूभर हो जाता, केमिकल्स से चमकती सब्जियों से लदा,मैं शहर हूँ... निर्मल और सुरम्य हवा हो गई कोसों दूर, चिमनियों के धुएं से घिरा, मैं शहर हूँ... आम, नीम, बरगद, महुआ के, दर्शन हो गए दुर्लभ, जेठ की दुपहरी में, पत्थरों की तपन में घिरा, मैं शहर हूँ... ©अभिषेक एन. त्रिपाठी