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मॉब लिंचिंग एक विसंगति Mob Lynching- A Nemesis

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मॉ ब लिंचिंग एक ऐसी घटना जब लोकतंत्र कानून व्यवस्था प्रशासन इत्यादि को दरकिनार कर आक्रोशित भीड़ खुद ही किसी सजा का त्वरित निर्धारण कर देती है  किसी अपराध के लिए या अनेक बार अफवाहों के आधार पर ही सजा देती है यूं कहें तो भीड़तंत्र का फैसला है यह जहां किसी को भी साक्ष्य की चिंता नहीं...शायद जरूरत भी नहीं समझते आखिर भीड़ जो है। और अंजाम कथित दोषी को पीट-पीटकर मौत के घाट उतार देती है ये भीड़। प्रशासन के लिए भी एक चुनौती है क्योंकि भीड़ का कोई निश्चित चेहरा नहीं होता।  यदि इसके इतिहास की ओर रुख करें तो पता चलता है कि यह कोई आज की घटना नहीं बल्कि बरसों से चली आ रही एक चुनौती है फिर चाहे वह यूरोप की घटनाएं हो या अमेरिका में श्वेत और अश्वेत के बीच का संघर्ष और हिंसा और वर्तमान स्वरूप तो आप देख ही रहे हैं अक्सर आए दिन कहीं ना कहीं इस प्रकार की घटनाएं,खबरें आती रहती हैं  एक वक्त था जब अमेरिकी सिविल वार यानी गृह युद्ध के दौरान छोटे-छोटे अपराध के लिए भीड़ द्वारा न्याय व्यवस्था से ऊपर उठकर इस प्रकार की घटना को अंजाम दिया जाता था, और वहीं से चला रहा है मॉब लिंचिंग का सिलसिला । लिंचिंग इ...

मैं शहर हूँ:कंक्रीट के जंगल मे घिरे एक शहर की व्यथा.. city/town/metrocity/mahanagar

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गांवों का देश कहा जाने वाला भारत,आने वाले कुछ वर्षों में शहरों का देश हो सकता है, लोग रोजगार आदि के चक्कर मे शहरों की ओर भागे जा रहे, 'शहर रोजगार तो देते हैं साथ ही तमाम समस्याओं की जड़ भी बनते जा रहे हैं मेरी ये एक रचना जो कि आज शहर की व्यथा को बयां कर रही है...    व्यथित शहर मैं शहर हूँ... हरे बाग बगीचे नहीं यहां, कंक्रीट के जंगलों से घिरा, मैं शहर हूँ... विरले ही सुन पाता, पक्षियों की मधुर आवाज, दिन-भर वाहनों के शोर-शराबों में घिरा, मैं शहर हूँ...  स्वच्छ स्वस्थ और ताज़ी भाजी,         मिलना यहां दूभर हो जाता, केमिकल्स से चमकती सब्जियों से लदा,मैं शहर हूँ...            निर्मल और सुरम्य हवा                 हो गई कोसों दूर, चिमनियों के धुएं से घिरा, मैं शहर हूँ... आम, नीम, बरगद, महुआ के,     दर्शन हो गए दुर्लभ, जेठ की दुपहरी में, पत्थरों की तपन में घिरा, मैं शहर हूँ...      ©अभिषेक एन.  त्रिपाठी