जो स्वयं अंधकार में रहता है, वही रोशनी देखकर आँखें सिकोड़ता है।

अभिषेक त्रिपाठी
(अयोध्या, उ.प्र.)

निंदा की प्रकृति बड़ी विचित्र है, बाहर से यह मात्र शब्दों की हलचल लगती है, पर भीतर यह मन की परतों को ऐसे कुरेदती है जैसे कोई अदृश्य उंगली आत्म-सम्मान के धूल-धब्बे दिखा रही हो। दर्शन कहता है, जो व्यक्ति स्वयं प्रकाशहीन होता है, वही दूसरों की चमक से डरता है। निंदक आपकी उपलब्धियों पर सवाल उठाएगा, लेकिन उसके पास न आपके संघर्ष की समझ होगी न हिम्मत की। रामायण में मंथरा जैसे लोग इसलिए पैदा होते हैं ताकि दुनिया समझ सके कि विषैले शब्द भी अंत में अपने ही मालिक को डसते हैं। निंदक का ताना आप पर नहीं लगता, वह उसके अपने मन की हताशा की गूँज है। इसलिए ऐसे लोगों पर ग़ुस्सा नहीं आना चाहिए, इन पर तरस आता है। क्योंकि जो अपनी ऊर्जा दूसरों को नीचा दिखाने में खर्च करता है, वह इतनी भी शक्ति नहीं जुटा पाता कि खुद का कोई मुकाम बना सके। निंदक की निंदा ही उसकी हार है, और आपका आगे बढ़ना ही उसकी सबसे बड़ी असुविधा। निंदा करने वाले की आदत बड़ी सस्ती होती है, वह दूसरों की मेहनत को तोलता है, लेकिन अपनी नज़र कभी अपने भीतर नहीं झाँकता। ऐसे लोग अक्सर खुद में इतनी कमी महसूस करते हैं कि दूसरों की प्रगति उन्हें चुभन की तरह लगती है। मनोविज्ञान कहता है कि inferiority complex से जूझने वाला व्यक्ति दूसरों को गिराकर ही अपने आप को ऊँचा महसूस करता है। इसलिए निंदक का हर शब्द उसके मन की दरारों का सबूत होता है, न कि आपकी कमज़ोरी का। निंदक दूसरों की राह रोकने की कोशिश करता है क्योंकि उसके पास अपनी राह पर चलने का साहस नहीं होता। वह तानों में शक्ति ढूँढता है, क्योंकि कर्म करने का बल उसमें होता ही नहीं। उसकी दुनिया शब्दों की चिल्लाहट है, काम की खामोशी नहीं। ऐसे लोग आपको नहीं, अपने भीतर के भय को हर दिन साबित करते रहते हैं कि “देखो, कोई और आगे न निकल जाए।”
जीवन ने धीरे-धीरे यह भी समझाया कि निंदा असल में हमारे चलने का प्रमाण है; स्थिर पानी पर कोई पत्थर नहीं फेंकता। मैंने खुद को कई बार नोटिस किया, जैसे-जैसे मैं किसी लक्ष्य की ओर बढ़ता, आवाज़ें तेज़ हो जातीं। और जैसे ही मैं ठहरता, वे आवाज़ें भी शांत हो जातीं। तब एक साधारण सी, पर गहरी बात समझ में आई: निंदक हमेशा प्रगति की परछाईं होते हैं; जहाँ प्रकाश होगा, वहीं अंधकार अपनी आकृति बनाएगा। दर्शन कहता है कि दूसरों के शब्द हमें नहीं रोकते, उन्हें महत्व देने का हमारा तरीका रोकता है। और मनोविज्ञान बताता है कि जितना हम बाहरी निंदा को व्यक्तिगत बना लेते हैं, उतना उसका ज़हर असर करता है। इसलिए मैंने अब निंदा को तौला नहीं, देखा; उससे लड़ा नहीं, उसके पार चल दिया। जब इंसान यह सीख जाता है कि निंदा रास्ते की धूल है, मंज़िल का निर्णय नहीं, तो वह चलना नहीं छोड़ता। और यक़ीन मानिए, जो चलते रहते हैं, उन्हें दुनिया की कोई आवाज़ वास्तव में थाम नहीं पाती। निंदा से भागना नहीं, उसके ऊपर उठ जाना; यही असली कला है।


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