गुनाहों का देवता उपन्यास समीक्षा Gunahon Ka Devta Novel Review

 गुनाहों का देवता उपन्यास समीक्षा

Gunahon Ka Devta Novel Review



ये आज फिजा खामोश है क्यों 

हर जर्रे को आखिर होश है क्यों

 या तुम ही किसी के हो न सके 

 या कोई तुम्हारा हो न सका 

 मौजें भी हमारी हो न सकी

  तूफां भी हमारा हो न सका

देवता तो तुम रहे,कुछ गुनाह तुमसे भी हो गए; पर भक्तों को देवता का हर गुनाह क्षम्य होता है। ये कुछ पंक्तियां हैं जो बयां करती है कथानक की गहराई को, यह बताती हैं कि प्रेम ठहराव, दृढ़ निश्चय, विश्वास और संकल्प से अभिसिंचित होता है।


धर्मवीर भारती का बेहद सदाबहार,कालजयी उपन्यास जिसकी पृष्ठभूमि ब्रिटिश कालीन इलाहाबाद।

कथानक आधारित है सुधा और चंदर की अमर प्रेम पर।

प्रेम,समर्पण और समाज के बंधनों की कहानी,जहां प्रेम बेहद अलग तरीके, पाशविकता और वासना से कोसों दूर, प्रेम के उत्प्रेरक के रूप में झलकता है।

कुछ अन्य पात्र विनती पम्मी,गीसू, बर्टी, बिसारिया, कैलाश।

चंद्र कपूर यानी चंदर जो अपनी मां से झगड़ कर पढ़ाई के लिए प्रयाग भाग आया था। बी ए. में एडमिशन लेता है और उसके शिक्षक होते हैं डॉक्टर शुक्ला जिन के सानिध्य में बाद में वो रिसर्च स्कॉलर भी होता है। सुधा के पिता डॉ शुक्ला चंद्र कपूर यानी चंदर की आर्थिक हालत से वाकीफ, उसे अपना पुत्र तुल्य एवम् सबसे प्रिय शिष्य के रूप मे मानते थे। प्रोफ़ेसर शुक्ला के घर चंदर का बिना किसी रोक-टोक के आना जाना रहता था धीरे-धीरे सुधा से परिचय होता है कालांतर में हंसी हंसी ठिठोली भी। चंदर डॉक्टर शुक्ला के साथ उनके संगोष्ठियों में भी जाता रहता था, डॉक्टर शुक्ला को भी चंदर के करियर की हमेशा चिंता रहती थी। वहीं धीरे-धीरे सुधा और चंदर की हंसी ठिठोली का रंग कब इश्क के रंग में बदल गया पता भी नहीं चला। सुधा बेहद भोली भाली लड़की जिसकी कोमलता, अल्हड़ता और परिपक्व मन कहानी को एक माधुर्य देता है।

चंदर और सुधा का इश्क बेहद अलग अंदाज में था चंदर सुधा के लिए देवता था। कहानी में उहापोह की स्थिति तब आती है जब चंदर डॉक्टर शुक्ला के आदर्शों, उनकी मदद, उनके एहसानों से इस कदर प्रभावित हो चुका होता है कि अपने दिल की बात सुधा तक नहीं पहुंचा पता आखिर अपने आश्रय दाता को धोखा कैसे देता चंदर के मन में एक अंतर्द्वंद,बिरह, खुद से जद्दोजेहद था, एक बार तो सुधा से पूछता भी है; क्या पुरुष और नारी के संबंध का एकमात्र रास्ता प्रणय, विवाह और तृप्ति ही है। खैर चंदर अपनी बात स्पष्ट रूप से बताने में असफल रहता है वहीं सुधा ने कहीं और विवाह ना करने का निश्चय कर रखा था। वास्तविकता से अनभिज्ञ डॉक्टर शुक्ला भी थक हार कर सुधा को मनाने के लिए चंदर को जिम्मेदारी सौंपते हैं। किसी तरह से चंदर सुधा को समझाता है (कितना कुछ सहा होगा चंदर ने)।

ये चंदर की नैतिकता का परिचायक भी है।अनेक बार जीवन में कुछ ऐसी परिस्थितियां आती है जिसका समाधान त्याग ही होता है।

अंततः शादी हो जाती है सुधा अपने ससुराल जाती है लेकिन चंदर के बिना सुधा भला कैसे रह पाती। चंदर को खत भी लिखा करती है एक बार सुधा ने-चंद्र मैं तुम्हारी आत्मा थी और तुम मेरे शरीर;पता नहीं हम लोग कैसे अलग हो गए तुम्हारे बिन मैं सूक्ष्म आत्मा रह गई, शरीर की प्यास रंगीनियों सब अपरिचित हैं, और मेरे बिना तुम केवल शरीर रह गए, शरीर में डूब गए।

 पाप के हिस्से में हमारा और तुम्हारा बराबर का योगदान है।

  इधर प्रोफ़ेसर शुक्ला की कुछ जरूरी काम से चंदर का पम्मी के घर जाना होता है यहां उपन्यासकार ने पम्मी और चंदर के संबंधों पर एक झलक प्रस्तुत करने की कोशिश की है। हालांकि अंतरंग संबंधों की प्रस्तुतीकरण के दौरान लेखक ने पूरी सतर्कता से अश्लीलता से परे रोमांच और रोमांस का वर्णन किया है। फिर भी पूरी तरह से नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। वहीं पम्मी का भाई बर्टी जो कि प्रेम बिरह की वजह से मानसिक अस्वस्थ;जिसने अपने प्रिय तोते को तीन गोलियां मारी,और मौत के घाट उतार देता है। यह एक सांकेतिक गूढ़ है कहानी का,आगे बढ़ने पर मालूम हुआ गोलियां प्रतीक है सुधा,विनती और पम्मी का।वही तोता चंदर का रूपक है।लेखक ने बड़ी संजीदगी से पात्रों को पिरोया है।

   विनती जो सुधा की बुआ की बेटी है मामा जी के घर आती है शुरू में शर्मीली मिजाज की किंतु धीरे-धीरे चंदर से घुलमिल गई, पवित्रता में सुधा जितनी या फिर कहीं ज्यादा ही।

   विनती शादी ना करने इच्छा के बावजूद भी शादी करना चाहती थी वजह:- बेवजह हर वक्त घर में डांट और ताने थे। उधर सुधा ससुराल में संपन्न होने के बावजूद भी हर वक्त बिरह के गम में डूबी रहती और अस्वस्थ रही थी। और दुनिया छोड़ कर उसे जाना पड़ा किंतु जाने से पहले के आखिरी क्षण उसने चंदर के कंधे पर सर रखकर ही गुजारे अब उसे किसी की परवाह नहीं थी, परवाह की तो उसे चंदर की। अंतिम क्षण भी उसने चंद्र का ख्याल रखा। चंदर और विनती को एक होने की गुजारिश की।

   जीवन का यंत्रणा चक्र एक वृत्त पूरा कर चुका था सितारे क्षितिज से उठकर आसमान पर एक छोर से दूसरे छोर पर पहुंच चुके थे। वो लगभग डेढ़ साल,वो विक्षुब्ध महासागर की भूखी लहरों की तरह हुंकार।

    खैर तूफान थम चुका था,धरातल शांत,बादल खुल गए थे और सितारे फिर आसमान की घोसलों से भयभीत विहंग शावकों की तरह झांक रहे थे।

     त्रिवेणी पर कार रूकती है। हल्की चांदनी मैले कफन की तरह लहरों की लाश पर पड़ी हुई थी। मल्लाह थककर पतवारों को किनारे लगा चुके थे। एक बूढ़ा बैठा चिलम पी रहा था। चंदर चुपचाप उसकी पतवार पर सवार होता है और बीच धार में गठरी खोलता है। साथ बैठी सिसक रही बिनती की मांग में एक चुटकी राख भर कर उसकी मांग को चूमता है और गठरी गंगा में फेंक देता है। लहरों में राख एक जहरीले पनियल सांप की तरह लहराती हुई अदृश्य हो जा रही थी। सितारे टूट चुके थे। तूफान थम सा गया था।

     बेशक चंदर कहानी का मुख्य पात्र बनकर उभरता है "गुनाहों का देवता"।

     किंतु इसमें भी कहीं संदेह नहीं सुधा भी "त्याग की देवी" थी।

इक रिदा-ए-तीरगी* है और ख़ाब-ए कायनात# !

डूबते जाते हैं तारे भीगती जाती है रात !!


*रिदा-ए -तीरगी-अंधेरे की चादर

*#खाब- ए -कायनात-जिंदगी का स्वप्न

*:- अभिषेक त्रिपाठी

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