पथ:a way to destination बढ़ते रहो, चलते रहो, चलना तुम्हारा धर्म है। जीवन का प्रथम और अंतिम उद्धारक स्वयं हम ही हैं।
पथ:a way to destination
"उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्।" भगवद्गीता का यह श्लोक हमें स्मरण कराता है कि; जीवन का प्रथम और अंतिम उद्धारक स्वयं हम ही हैं।
संघर्ष का मार्ग, जैसे महाभारत के अर्जुन को कुरुक्षेत्र में मिला, वैसे ही हर मानव को अपने भीतर का रणक्षेत्र पार करना होता है। राह में संशय के धुंध, निराशा की आँधियाँ और असफलताओं के पत्थर होंगे, पर वही विजेता बनता है जो "एकला चलो रे" के भाव से आगे बढ़ता है।
रामायण में वनवास का काल केवल दंड नहीं था, वह राम के धैर्य, त्याग और नीति की परीक्षा थी। पश्चिम की ओर देखें तो अब्राहम लिंकन की अनेक असफलताओं के बाद की विजय, एडिसन का बल्ब के लिए हज़ार प्रयास; ये सब इस तथ्य के प्रमाण हैं कि दृढ़ता ही सफलता का मूल है।
वैज्ञानिक दृष्टि से भी, विकास (Evolution) ने सिखाया है; जो अनुकूलन करता है वही टिकता है। जैसे नदियाँ चट्टानों को तोड़कर नहीं, बल्कि अपनी निरंतरता से मार्ग बनाती हैं।
मुंशी प्रेमचंद ने कहा था, "जो काम कठिन है, वही करने में मज़ा है।" फिल्मों में चक दे इंडिया का संवाद याद आता है, "सत्तर मिनट, तुम्हारे पास सत्तर मिनट हैं…" जो समय के महत्व को रेखांकित करता है।
सफलता कोई मंज़िल नहीं, बल्कि वह सतत् यात्रा है जिसमें आत्मविश्वास, सतत् प्रयास और सकारात्मक दृष्टि आपके रथ के अश्व हैं, और बाकी यश, वैभव, धन; बस रथ के पीछे चलने वाली धूल।
बढ़ते रहो, चलते रहो,
चलना तुम्हारा धर्म है..
होते क्यूँ निराश तुम?
ये तो तुम्हारा कर्म है,
मुश्किलें आती और जाती रहेंगी राह में,
क्या किसी राही का रुकना,और मिट जाना भी धर्म है?
तुममें ही मांझी छिपा है,
तुम ही वो धनुर्धर,
ये जहां होगा तुम्हारा; बस छोड़ न देना डगर।
भीड़ में से लोग, तुम पर फब्तियां भी कसेंगे।
तुम कहीं रुक न जाना;
चलना तुम्हारा धर्म है...
व्यर्थ में जाने न देना, बूँद भी इक स्वेद की;
ये बूँद ही वो मोती है, जो लक्ष्य को भेदती।
यदि हार भी गए, तो;
इसमें भला, क्या शर्म है;
बढ़ते रहो, चलते रहो, चलना तुम्हारा धर्म है..!
