राम की महिमा

अभिषेक त्रिपाठी
(अयोध्या, उ.प्र.)

वाल्मीकि की अनुपम कथा में राम केवल कर्तव्य के पथिक नहीं हैं, वे उस व्यूह के शिल्पी हैं जो मनुष्य को आत्मिक अनुशासन, नीतिशुद्धि और करुणा की ओर ले जाता है। उपनिषदों की गूढ़ता कहती है - “आत्मा का स्वरूप शुद्ध है”, और राम उस शुद्धतम स्वरूप की सजीव अभिव्यक्ति हैं। उनका जन्म केवल एक राजकुमार के रूप में नहीं, बल्कि सत्य, धर्म और प्रेम के साक्षात् प्रतीक के रूप में हुआ। वे त्रेता के उस युग में प्रकट हुए जब अधर्म, असंतुलन और अहंकार ने समाज को विषाक्त कर दिया था। राम उस काल के नहीं, हर काल के उत्तर हैं; वे वह उत्तर हैं जो मनुष्य को उसके भीतर के ईश्वर से परिचित कराता है। बचपन से ही उनमें असाधारण संयम और शालीनता झलकती थी। उन्होंने धनुर्विद्या सीखी, पर हथियार को क्रोध का साधन नहीं, धर्म का औजार माना। जब पिता दशरथ ने उन्हें वनवास का वचन सुनाया, तब उन्होंने बिना क्षणभर संकोच के सिर झुका दिया। उन्होंने राज्य नहीं, कर्तव्य चुना; सुख नहीं, सत्य को अपनाया। वह क्षण इतिहास का नहीं, आत्मा का था -जहाँ एक पुत्र ने पिता से बड़ा धर्म स्वीकारा।


वन उनका आश्रम बन गया, जहाँ वृक्षों से उन्होंने धैर्य सीखा, ऋषियों से करुणा और प्रकृति से संतुलन। उन्होंने वन को तपोभूमि बनाया और अपने आचरण से दिखाया कि विपत्ति भी साधना बन सकती है। वहीं उन्होंने समाज के उन वर्गों से संपर्क किया जिन्हें उस समय ‘अस्पृश्य’ कहा जाता था। निषादराज से उन्होंने बिना भेदभाव के आलिंगन किया और समाज को यह सिखाया कि समानता का आरंभ हृदय से होता है, किसी शास्त्र से नहीं। शबरी नामक वृद्ध भीलनी की प्रतीक्षा ने उनके जीवन में भक्ति की सुगंध भर दी। वह हर दिन बेर चुनती और एक-एक बेर चखकर देखती कि कौन-सा मीठा है, क्योंकि अपने प्रभु को वह केवल सर्वोत्तम अर्पण देना चाहती थी। जब राम उसके झोपड़े में पहुँचे, उसने वे चखे हुए बेर उन्हें भेंट किए। लक्ष्मण ने संकोच किया, पर राम ने मुस्कराकर कहा - “ये जूठे नहीं, प्रेम से पवित्र हैं।” उस क्षण राम की करुणा ने समाज के सारे भेद तोड़ दिए। उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि ईश्वरता किसी वर्ण, जाति या नियम से नहीं, भावना की शुद्धता से प्रकट होती है। वन के जीवन में ही जब राक्षसों के अत्याचार बढ़े, तब राम ने धर्म की रक्षा के लिए शस्त्र उठाया। यहाँ उन्होंने पहली बार यह दिखाया कि शक्ति और दया का संगम ही सच्चा बल है। जब सीता का अपहरण हुआ, तब वे केवल एक नारी के पति नहीं रहे, वे संपूर्ण स्त्री-सम्मान के रक्षक बन उठे। उनकी वेदना करुणा में बदली, और वह करुणा युद्ध का धर्म बन गई। उन्होंने हर जीव में सहयोगी देखा - पक्षियों, वानरों, सागर और पर्वत तक से संवाद किया। यह संवाद बताता है कि राम का धर्म केवल मनुष्यों तक सीमित नहीं था, वह समग्र प्रकृति तक फैला था। सीता की खोज में उन्हें हनुमान मिले - जो उनके भक्ति और शक्ति के मिलन का साकार रूप थे। हनुमान में उन्होंने वह भक्ति देखी जो ज्ञान से भी बड़ी है, और वह सेवा जो अहंकार से परे है। राम और हनुमान का संबंध गुरु-शिष्य का नहीं, आत्मा और प्रेम का है। रावण के साथ उनका युद्ध दो व्यक्तियों का नहीं, दो विचारों का था। रावण ज्ञानवान था, पर अहंकारी; राम शक्तिशाली थे, पर विनम्र। रावण ने वेद पढ़े, पर उन्हें जिया नहीं; राम ने वेद नहीं रचे, पर उन्हें आचरण में ढाला। इसीलिए अंततः विजय उसी की हुई जो अपने धर्म के प्रति सच्चा था। रावण की मृत्यु के समय जब लक्ष्मण ने उनसे सीखने में संकोच किया, तो राम ने कहा - “जो गिरा हुआ भी ज्ञानी है, वह शिक्षक है।” इस एक वाक्य में उनका संपूर्ण दर्शन है – ज्ञान, विनम्रता और करुणा का संगम। विभीषण जब रावण का साथ छोड़कर उनकी शरण में आए, तो उन्होंने बिना संदेह कहा - “सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते। अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद् व्रतं मम।” जो एक बार शरण में आ जाए, उसे मैं भय से मुक्त कर देता हूँ। यह वचन केवल कृपा नहीं, बल्कि मानवता की उद्घोषणा थी। राम ने अपने शत्रु के भाई को भी गले लगाया और संसार को बताया कि ईश्वर का द्वार सबके लिए खुला है। रावण का वध केवल एक राक्षस का अंत नहीं, अहंकार की पराजय थी। यह विजय बाहरी नहीं, भीतरी थी - मनुष्य के भीतर के रावण पर मनुष्य के भीतर के राम की विजय। लंका विजय के बाद जब राम अयोध्या लौटे, तब उनका राज्य केवल सत्ता का नहीं, धर्म का राज्य बना - रामराज्य। जहाँ न्याय करुणा से जुड़ा था, जहाँ शासन सेवा का पर्याय था, जहाँ प्रजा भयमुक्त और सुखी थी। यह वही आदर्श है जिसकी कल्पना हर युग में होती रही। महात्मा गांधी ने जब “रामराज्य” कहा, तो उसका अर्थ था नैतिक शासन, जहाँ हर व्यक्ति स्वतंत्र हो और हर जीव सुरक्षित। किन्तु राम का जीवन केवल विजय का नहीं, त्याग का भी है। सीता की अग्निपरीक्षा और उनका पुनः वनगमन राम के चरित्र का सबसे करुण अध्याय है। एक ओर पति का हृदय दुखी हुआ, दूसरी ओर राजा का धर्म अडिग रहा। उन्होंने व्यक्तिगत वेदना को लोकहित के लिए समर्पित किया। यही मर्यादा की चरम सीमा है - जहाँ व्यक्ति स्वयं को समाज के धर्म के लिए त्याग दे। राम ने कभी स्वयं को धर्म से ऊपर नहीं रखा; उन्होंने यह सिखाया कि धर्म का पालन तभी संभव है जब अहंकार का विसर्जन हो। राम के जीवन का प्रत्येक क्षण एक रस की व्याख्या है। जब वे वन में तप करते हैं, तब वे “शांत रस” के ऋषि हैं; जब वे रावण से युद्ध करते हैं, तब “वीर रस” के देवता; और जब सीता से वियोग में व्याकुल होते हैं, तब “करुण रस” के मनुष्य। यही तो उनकी सम्पूर्णता है - वे ईश्वर होकर भी मनुष्य हैं, और मनुष्य होकर भी ईश्वर। उनका जीवन बताता है कि ईश्वरत्व कोई अलौकिक शक्ति नहीं, बल्कि अपने भीतर के सत्य, संयम और प्रेम को जीने की क्षमता है। राम का हृदय ऐसा कि शबरी के चखे हुए बेर भी उन्हें अमृत लगे; उनकी दृष्टि ऐसी कि निषादराज के आलिंगन में कोई भेद न रहा; उनकी नीति ऐसी कि विभीषण को शरण देते हुए उन्होंने अभय का वचन दिया। यही करुणा, यही विनम्रता, यही मर्यादा उन्हें मानवता का आदर्श बनाती है। फिल्म “स्वदेस” का वह संवाद याद आता है - “हमारे अंदर का राम जागे तो सब कुछ संभव है।” वास्तव में राम कोई व्यक्ति नहीं, एक स्थिति हैं। जहाँ प्रेम है, सत्य है, मर्यादा है, वहीं राम हैं। जब कण-कण में ‘रामत्व’ उतर आता है, तब भौतिक और आत्मिक का भेद मिट जाता है। राम वह दीप हैं जो त्रेता के अंधकार में ही नहीं, युगों के तमस में भी जलते रहे।

राम हँसे, रोए, लड़े, क्षमा की, त्याग किया - ताकि मनुष्य यह समझ सके कि ईश्वरत्व किसी चमत्कार में नहीं, मर्यादा में है। उनका चरित्र कहता है, “ईश्वर वही है जो मनुष्य होकर भी मर्यादा में रहे।” यही रामत्व है - शक्ति में विनम्रता, ज्ञान में प्रेम, और कर्म में धर्म। जब मनुष्य के भीतर यह रामत्व जाग उठे, तब संसार फिर से प्रकाशमान हो जाता है। क्योंकि राम कोई कथा नहीं, एक चेतना हैं - जहाँ सत्य है, वहाँ राम हैं; जहाँ करुणा है, वहाँ राम हैं; जहाँ मर्यादा है, वहाँ साक्षात् श्रीराम हैं।


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