बदलते दौर की विधा//सीरीज 0001/1000 रिश्तों का ताना-बाना: आत्मा की ऊर्जा से जुड़ा संसार
"कुछ इस तरह से निभा लीजिए जिंदगी के रिश्तों को,
जो खामोशी भी कहे, कि 'मैं भी हूँ तेरे साथ'।”
अक्सर हम सोचते हैं कि रिश्ते क्या हैं? …
माता-पिता, भाई-बहन, पति-पत्नी, मित्र—इन सबकी सीमाएँ हैं, परंतु असली रिश्ते वहाँ से शुरू होते हैं जहाँ भावना, समझ, और ऊर्जा का आदान-प्रदान होता है। रिश्तों का कोई एक स्थायी रूप नहीं होता—यह एक बहती हुई नदी की तरह है जो समय, परिस्थिति और भावनाओं के अनुसार आकार लेती है। रिश्ते खून से नहीं, आत्मा की ऊर्जा से बनते हैं। कुछ रिश्ते होते हैं जो कहे नहीं जाते, बस महसूस किए जाते हैं। कुछ अहसास ऐसे होते हैं जो शब्दों में नहीं बंधते, लेकिन हर शब्द उन्हीं के इर्द-गिर्द घूमता है। हम सब कभी न कभी किसी अपने को भूलकर, अनजाने में कुछ ऐसा कर जाते हैं, जो न करने जैसा था। शायद कहा कुछ और गया, पर सुना कुछ और गया। या फिर चुप्पी ही शोर बन गई। कभी-कभी हम सोचते हैं, हम सही थे।
पर शायद किसी की चुप्पी बता रही होती है कि सही होना हमेशा काफी नहीं होता। ज़रूरी होता है समझ पाना, थाम पाना, और कभी-कभी... बस सुन लेना। कभी-कभी माफ़ी नहीं चाहिए, बस एहसास चाहिए कि कोई समझता है हमें।
> "तू रूठे तो कोई बात नहीं,
पर तू खामोश रहे—तो दिल डरता है।"
रिश्तों में जब भी कोई दरार आती है, तो दीवारों को नहीं, अपने भीतर की दीवारों को देखने की ज़रूरत होती है। आज की भागती दौड़ती ज़िंदगी में हम "क्या किया" पर ध्यान देते हैं, "किस सोच से किया" को भूल जाते हैं। “क्या किया" से ज़्यादा जरूरी होता है "क्यों किया"। और अक्सर जवाब इरादों में मिलता है, शब्दों में नहीं।
> "तेरा मुझसे है पहले का नाता कोई,
यूँ ही नहीं दिल लुभाता कोई..." — गीत: आ गले लग जा (1973)
मैंने महसूस किया है कि हर रिश्ता एक आईना होता है। जैसे-जैसे हम उसमें झाँकते हैं, वैसे-वैसे हमें अपना चेहरा और साफ़ दिखने लगता है। रिश्ते निभाना कोई कला नहीं, बस थोड़ा समय, थोड़ी संवेदना, और बहुत सारा मन चाहिए। रिश्तों की सबसे ख़ूबसूरत बात यही है कि वो लौटने का रास्ता हमेशा खुला रखते हैं। बस, थोड़ा सा धैर्य, थोड़ा सा प्रेम, और कुछ पुराने लम्हों की रोशनी साथ होनी चाहिए।
> "संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्।"
(हम एक साथ चलें, एक साथ बोलें, हमारे मन भी एक हो जाएं।)
— ऋग्वेद 10.191.2
रामायण में श्रीराम केवल एक पुत्र नहीं थे—वो मर्यादा का प्रतीक थे। उन्होंने पिता के वचन के लिए अपना राज्य त्याग दिया। यह त्याग नहीं, रिश्ता निभाने की पराकाष्ठा थी।
> "पितृवचनपरिपालकः रामो नाम जनप्रियः।"
महाभारत में भी रिश्तों के टूटने से महायुद्ध हुआ। द्रौपदी का अपमान और भीष्म, द्रोण की चुप्पी—यही वो जगह है जहाँ रिश्तों ने बोलना बंद कर दिया और परिणाम विध्वंस बन गया।
> "यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।"
(जब-जब धर्म में हानि होती है, तब-तब मैं आता हूँ।)
— भगवद्गीता 4.7
यह धर्म सिर्फ कर्म का नहीं, रिश्तों का भी धर्म है।
भारतीय संस्कृति में रिश्तों को त्योहारों के माध्यम से जीवित रखा गया है। रक्षा बंधन, करवा चौथ, भाई दूज, तीज—ये सब रिश्तों को पुनः जीवंत करने का निमित्त हैं। हमारी संस्कृति में कहा गया है:
> "अतिथि देवो भव:"
(जो संबंध से बाहर भी हैं, वो भी सम्मान के पात्र हैं।)
आज के सामाजिक ताने-बाने में रिश्ते कहीं 'फॉलो-अनफॉलो' की डिजिटल लिस्ट में सिमटते जा रहे हैं। हमारी पीढ़ी तात्कालिक उत्तर, परिणाम और प्रतिफल चाहती है, जबकि रिश्ते धैर्य और परिपक्वता की खेती हैं।
बुद्ध कहते हैं –
एक दिया दूसरे को रोशनी दे, उसका खुद का प्रकाश कम नहीं होता।
रिश्ते कोई चीज़(वस्तु) नहीं जिसे खरीदा या बनाया जाए। ये एक ऊर्जा का प्रवाह है, जो तभी बहता है जब हम मन, वचन और कर्म से शुद्ध होते हैं।
किसी भी बात को दिल से न लगाएं, क्योंकि रिश्ते अहम से नहीं, समझ से चलते हैं।
आइए, हम सब मिलकर अपने जीवन में उन रिश्तों को फिर से प्रेम, संवाद और आत्मीयता की ऊर्जा से जीवंत करें।
[अभिषेक त्रिपाठी, अयोध्या]
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