बदलते दौर की विधा//सीरीज 0008/1000 जीवन के कोरे कागज पर जब गुरु की कलम चलती है, तब उसमें चित्र नहीं, चरित्र उभरता है
एक सुंदर गीत है:कोरा कागज था ये मन मेरा।
इतिहास में जब-जब अंधकार ने दस्तक दी, किसी न किसी गुरु ने दीपक बनकर उस अंधकार को चीरने का कार्य किया। चाणक्य और चन्द्रगुप्त की कथा इसका सर्वोत्तम उदाहरण है—जहाँ एक शिक्षक ने अपने शिष्य को एक महान सम्राट बनाया, और उसी के माध्यम से सम्पूर्ण शासन प्रणाली को ही नया आयाम दिया।
भारतीय संस्कृति में गुरु को साक्षात ब्रह्मा, विष्णु, महेश माना गया है—सृजनकर्ता, पालक और संहारक।
"जहाँ गुरु ना पहुँचे, वहाँ किताबें भी चुप रहती हैं।"
यही कारण है कि भारत के सांस्कृतिक इतिहास में गुरु और शिष्य की परंपरा आदिकाल से प्रतिष्ठित रही है। चाहे विश्वामित्र और राम की बात करें या कृष्ण और अर्जुन की। महाभारत के विराट युद्धभूमि में अर्जुन के हृदय में जब संशय छा गया, तब श्रीकृष्ण ने गीता का उपदेश देकर न केवल उसे पुनर्जीवित किया, बल्कि संसार को कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्ति योग की त्रयी भी प्रदान की।
गुरु का महत्व केवल धार्मिक या आध्यात्मिक दायरे में सीमित नहीं है, इसका सामाजिक और मनोवैज्ञानिक पहलू भी उतना ही गहरा है।
"The mediocre teacher tells. The good teacher explains. The superior teacher demonstrates. The great teacher inspires." यह वाक्य विलियम आर्थर वार्ड का है और यह स्पष्ट करता है कि गुरु केवल जानकारी देने वाला प्राणी नहीं, वह प्रेरणा का स्रोत होता है।
यही गुरु जब बुद्ध बनते हैं, तो वे केवल मोक्ष का ही नहीं, सामाजिक न्याय का भी संदेश देते हैं।
यही गुरु जब कबीर बनते हैं, तो वे कहते हैं:
"गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागू पाय।
बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो बताय॥"
गुरु की खोज का कार्य एक वैज्ञानिक प्रयोग के समान है—क्योंकि यह परीक्षण है मन का, संशोधन है दृष्टिकोण का और परिष्कार है आत्मा का।
गुरु की उपस्थिति का लाभ वही उठा पाते हैं, जिनका जीवन ‘कोरा कागज’ हो, जिसमें सीखने की ललक हो, जिसने अहंकार की स्याही से अपने भविष्य को रंगा न हो।
पश्चिम की बात करें तो सुकरात, प्लेटो और अरस्तू की त्रयी गुरु-शिष्य परंपरा का एक ऐसा आदर्श है, जिसने न केवल यूनान बल्कि सम्पूर्ण विश्व की सोच को आकार दिया। सुकरात के विचार आज भी ज्यों के त्यों गूंजते हैं:
"I cannot teach anybody anything. I can only make them think."
और सोचने की इस शक्ति को ही गुरु उत्पन्न करता है।
आधुनिक युग में स्वामी विवेकानंद, रवींद्रनाथ टैगोर, रामकृष्ण परमहंस जैसे विचारकों ने यह सिद्ध किया है कि जब गुरु और शिष्य के बीच श्रद्धा और संवाद की सेतु होती है, तब सभ्यताएँ आकार लेती हैं। गुरु केवल ज्ञान नहीं देते, वे दृष्टि देते हैं – देखने की, समझने की, और अंततः स्वयं को पहचानने की। जीवन के कोरे कागज पर जब गुरु की कलम चलती है, तब उसमें चित्र नहीं, चरित्र उभरता है।
आज जब जीवन में भ्रम, भय और बेचैनी के बादल मंडराते हैं, तब आवश्यकता है उस गुरु की जो हमारे भीतर के संशयों का निवारण करे। तो जीवन में गुरु को ढूंढते रहिए। और जब मिल जाए—तो संदेह मत कीजिए, समर्पित हो जाइए।
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