रामो विग्रहवान् धर्मः राम का स्मरण केवल पूजा नहीं, एक संस्कार निर्माण प्रक्रिया है।

“रामो विग्रहवान् धर्मः” जब यह वाक्य वाल्मीकि की वाणी से निकला, तो ध्वनि केवल शुद्ध संस्कृत की नहीं थी, बल्कि उसमें सम्पूर्ण मानवता का नैतिक गान गुंजित हो रहा था। राम केवल त्रेता युग के एक नायक नहीं, युग-युगों के लिए गूंजती धर्म की प्रतिध्वनि हैं। उनके एक ओर लक्ष्मण की आज्ञापालनशीलता, दूसरी ओर सीता की करुणा और शक्ति, और समक्ष हनुमान की भक्ति और कर्मशीलता; यह त्रिकोण केवल एक दृश्य नहीं, बल्कि धर्म, भक्ति और ज्ञान की त्रिकालबद्ध व्याख्या है।
              दक्षिणे लक्ष्मणो यस्य वामे तु जनकात्मजा।
              पुरतो मारुतिर्यस्य तं वन्दे रघुनन्दनम्‌॥
इस सूक्त में वर्णित रघुकुलनंदन श्रीराम के चारों ओर खड़े पात्र प्रतीक हैं; जनकनंदिनी सीता वामपार्श्व में हैं क्योंकि वाम (लेफ्ट) भारतीय दर्शन में शक्ति का स्थान है। लक्ष्मण दक्षिण में, क्योंकि दक्षिण दिशा धर्म की दिशा मानी गई है यम की, न्याय की। और पवनपुत्र हनुमान सामने हैं, क्योंकि कर्म और सेवा सदा समक्ष होनी चाहिए। इस एक श्लोक में पूरी रामायण की आत्मा समाहित है। राम के चरित्र का सौंदर्य यही है कि वे रहस्य नहीं, स्पष्टता हैं; वे आज्ञा नहीं, प्रेरणा हैं। वे उपदेश नहीं देते, स्वयं उपदेश बन जाते हैं। कवि दिनकर ने लिखा है, “राम तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है।” राम ने कभी स्वयं को ईश्वर नहीं कहा, वे “राजा राम” बने, न कि “ईश्वर राम”, ताकि मानव को यह विश्वास रहे कि मर्यादा में रहकर भी पूर्णता प्राप्त की जा सकती है। राम का स्मरण केवल पूजा नहीं, एक संस्कार निर्माण प्रक्रिया है। सीता की अग्नि परीक्षा, राम का राज्यत्याग, भरत का पादुका शासन; ये प्रसंग केवल भावुक नहीं, गहरे दार्शनिक हैं। यहाँ कर्तव्य प्रेम से बड़ा है, और मर्यादा व्यक्तिगत सुख से ऊँची।
वर्तमान में जब हम 'लीडरशिप मॉडल्स' की बात करते हैं, तो राम का व्यक्तित्व ‘सर्वगुणसंपन्न नेतृत्व’ का आदर्श है, जहाँ दया भी है, न्याय भी; साहस भी है, धैर्य भी। जब हम कहते हैं; “तं वन्दे रघुनन्दनम्।” तो हम केवल प्रणाम नहीं कर रहे, हम विवेक, भक्ति और कर्तव्य की प्रतिज्ञा ले रहे हैं।


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