बदलते दौर की विधा//सीरीज 0007/1000 किताबें इसलिए भी पढ़िए
किताबों से बढ़कर कोई वफ़ादार और जिगरी दोस्त नहीं होता। समय, धन, संबंध, प्रतिष्ठा—सब कुछ जीवन में कभी न कभी छूट सकता है, मगर किताबें जो ज्ञान देती हैं, वह कभी छिनता नहीं। किताबों का साथ न केवल जीवन को गहराई देता है, बल्कि मनुष्य की दृष्टि को व्यापक बनाता है, सोच को परिपक्व और आत्मा को शांत करता है। यही कारण है कि एक शिक्षित समाज का निर्माण पुस्तकों के बिना असंभव है।
किताबें पढ़ना केवल परीक्षा पास करने या करियर बनाने का माध्यम नहीं है। यह आत्मा की खुराक, विचारों की खाद और मानवता की ऊर्जा है। जैसे भोजन शरीर को पोषण देता है, वैसे ही किताबें बुद्धि और संवेदना को परिष्कृत करती हैं। महात्मा गांधी से लेकर डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम तक, सभी महान व्यक्तित्वों ने यह स्वीकारा है कि पुस्तकों ने उनके जीवन को दिशा दी। स्वामी विवेकानंद ने कहा था, “हम जो पढ़ते हैं वही बनते हैं।” इस कथन में छिपी शक्ति को समझने की आवश्यकता है। पंडित नेहरू किताबों को राष्ट्र की आर्थिक और सामाजिक रीढ़ मानते थे। उनका विश्वास था कि सरकार यदि पुस्तकालयों के निर्माण और पुस्तकों के प्रकाशन पर अधिक खर्च करे, तो शिक्षा के प्रसार के माध्यम से दीर्घकालीन सामाजिक सुधार संभव है। उनका यह कथन आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना स्वतंत्रता के तुरंत बाद था—“अगर लोग अशिक्षित रह गए, तो सरकार को उन पर कहीं अधिक खर्च करना पड़ेगा।” यह दृष्टिकोण केवल आदर्श नहीं था, बल्कि एक दूरदर्शी राष्ट्रीय नीति का प्रस्ताव था, जो आज भी हमारी शिक्षा व्यवस्था में अपनाए जाने योग्य है।
किताबें केवल तथ्य नहीं देतीं; वे विचार देती हैं, दृष्टिकोण देती हैं। वे पाठक के मन को खोलती हैं और उसे सीमाओं से परे जाकर सोचने के लिए प्रेरित करती हैं। एक रूसी कवि जोसेफ ब्रॉडस्की ने कहा था कि किताबों को न पढ़ना, उन्हें जलाने से भी बड़ा अपराध है। यह कथन केवल साहित्यिक अतिशयोक्ति नहीं है, बल्कि एक गंभीर चेतावनी है—क्योंकि जब हम पढ़ना छोड़ देते हैं, तो हम सोचना भी बंद कर देते हैं, और जब सोच बंद हो जाए, तो समाज रोबोटिक और प्रतिक्रियावादी बन जाता है। इतिहास साक्षी है कि हर अधिनायकवादी शासन ने सबसे पहले किताबों पर प्रतिबंध लगाया, लेखक और कवि जेल भेजे, पुस्तकालय जलाए। कारण स्पष्ट था—किताबें चेतना को जगाती हैं, विद्रोह को जन्म देती हैं, असहमति को आकार देती हैं। जो सत्ता विचारों से डरती है, वह पुस्तकों से भी भयभीत रहती है। हिटलर का जर्मनी हो या माओ का चीन, हर स्थान पर पुस्तकें बर्बादी का पहला लक्ष्य बनीं।
दूसरी ओर, लोकतांत्रिक और प्रगतिशील समाजों ने किताबों को सम्मान दिया है। स्कैंडिनेवियन देशों जैसे नॉर्वे, स्वीडन और फिनलैंड में औसतन हर व्यक्ति हर महीने दो पुस्तकें पढ़ता है। इन देशों का मानव विकास सूचकांक (HDI), नवाचार में योगदान और नागरिक सहभागिता—सभी में उल्लेखनीय प्रगति है। भारत जैसे देश में, जहाँ ज्ञान की परंपरा वेदों, उपनिषदों और लोककथाओं से हजारों वर्षों से चली आ रही है, वहाँ आज भी किताबों से दूरी समाज के कई स्तरों पर पिछड़ेपन का कारण बन रही है। किताबों से दूरी केवल शैक्षिक संकट नहीं, बल्कि सांस्कृतिक संकट भी है। जब पीढ़ियाँ केवल स्क्रीन पर आधारित सूचना लेती हैं और गहराई से पढ़ने का अभ्यास खो बैठती हैं, तो भाषा, संवेदना और विचार—तीनों का ह्रास होता है। किताबें पढ़ने की आदत किसी राष्ट्र की सॉफ्ट पावर होती है। जब नागरिक जटिल विचारों को समझने में सक्षम होते हैं, तो वे न केवल अच्छे मतदाता, बल्कि अच्छे नागरिक, बेहतर सहकर्मी और संवेदनशील माता-पिता भी बनते हैं। किताबें पढ़ने की प्रेरणा केवल शिक्षा संस्थानों से नहीं आती। यह एक सांस्कृतिक आदत है, जो परिवारों और समुदायों में विकसित होती है। एक उदाहरण सुधा मूर्ति का है, जिन्होंने एक बार एक रईस पार्टी में भाग लिया जहाँ लोग दिखावे में रमे हुए थे लेकिन उनके ड्रॉइंग रूम में एक भी किताब नहीं थी। जब उन्होंने घर लौटकर पति से कहा, "कितने निर्धन थे ये लोग," तो यह कथन केवल व्यंग्य नहीं था, बल्कि पुस्तकविहीन जीवन की असल दरिद्रता का प्रतीक था। किताबें सजाकर रखने की बजाय पढ़ने के लिए होती हैं। किताबों की उपस्थिति घर को गरिमा देती है, लेकिन उनका पठन-मनन ही उन्हें सार्थक बनाता है। बच्चों को किताबों से जोड़ना केवल उनके परीक्षा परिणाम सुधारने का साधन नहीं होना चाहिए, बल्कि उन्हें सोचने और प्रश्न करने के लिए प्रेरित करना चाहिए। ‘रोल मॉडल’ माता-पिता वही होते हैं जो स्वयं भी पढ़ते हैं और बच्चों के साथ विचार साझा करते हैं। आज जब सोशल मीडिया की सतही जानकारी और तात्कालिक प्रतिक्रियाओं का दौर है, किताबें ही वह माध्यम हैं जो व्यक्ति को धैर्य, अनुशासन और गहराई का पाठ पढ़ाती हैं। रील्स और पोस्ट्स में खोया हुआ युवा वर्ग जब गंभीर पुस्तकें पढ़ता है, तो वह केवल जानकारी से नहीं, विचारों से जुड़ता है। किताबें उसे यह सिखाती हैं कि हर चीज़ का एक गहरा पक्ष होता है, हर समस्या का एक सांस्कृतिक और ऐतिहासिक संदर्भ होता है।
शोध यह भी बताते हैं कि किताबें पढ़ने से मस्तिष्क की संरचना बदलती है, सहानुभूति की भावना बढ़ती है और तनाव का स्तर कम होता है। 2009 में यूनिवर्सिटी ऑफ ससेक्स द्वारा किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि सिर्फ 6 मिनट किताब पढ़ना तनाव को 68% तक कम कर सकता है। इस संदर्भ में किताबें केवल ज्ञान का माध्यम नहीं, बल्कि मानसिक स्वास्थ्य का सहायक भी बन जाती हैं। प्रशासनिक सेवा की दृष्टि से देखें तो एक अधिकारी की सबसे बड़ी संपत्ति उसका विचार, मूल्यबोध और दृष्टिकोण होता है—जो केवल अनुभव और पुस्तकीय ज्ञान के संयोजन से ही विकसित होता है। जब निर्णय लेने की स्थिति आती है, तब व्यक्ति को केवल नियम नहीं, बल्कि न्याय, सहानुभूति और विवेक की भी आवश्यकता होती है—और ये सब किताबों के माध्यम से विकसित होते हैं। आज जरूरत इस बात की है कि हम किताबों को जीवन की प्राथमिकता बनाएं। सरकारें पुस्तकालयों को प्रोत्साहित करें, स्कूलों में ‘Reading Period’ अनिवार्य हो, और सार्वजनिक स्थलों पर पुस्तक आदान-प्रदान की सुविधाएँ उपलब्ध हों। निजी क्षेत्र को भी CSR के तहत गाँवों और कस्बों में ‘बुक बैंक’ खोलने चाहिए, जहाँ पाठक केवल पुस्तकें उधार न लें, बल्कि विचार भी लौटाएँ। डिजिटल युग में ई-पुस्तकों और ऑडियोबुक्स का प्रसार इस दिशा में एक सकारात्मक कदम है, लेकिन मूल भावना—पढ़ने की—बनी रहनी चाहिए। यदि हमें एक ऐसा भारत बनाना है जो ज्ञान, विवेक और संवेदना में समृद्ध हो, तो हमें यह स्वीकार करना होगा कि किताबें कोई विलासिता नहीं, बल्कि आवश्यकता हैं। जितना निवेश हम हथियारों, वाहनों या भवनों पर करते हैं, उसका एक अंश यदि पुस्तकों और पुस्तकालयों पर हो जाए, तो वह राष्ट्र निर्माण का सशक्त साधन बन सकता है।
किताबें पढ़ना एक निजी सुख है, लेकिन उसका प्रभाव सार्वजनिक होता है। यह वह साधना है जो एकांत में होती है, लेकिन समाज को बदल देती है। यही कारण है कि किताबें पढ़ना केवल एक आदत नहीं, एक सामाजिक उत्तरदायित्व है।
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