अयोध्या परिक्रमा विशेष

“रामो विग्रहवान् धर्मः” अयोध्या की पावन भूमि पर जब परिक्रमा का शुभ अवसर आता है, तो यह केवल एक धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि आत्मा की उस यात्रा का उत्सव होता है जिसमें मनुष्य अपने भीतर के राम को खोजता है। जहां न कोई आदेश, न कोई अपेक्षा; केवल प्रेम का आवेग। यही भाव आज के परिक्रमा मार्ग पर भी झलकता है। 
यत्र यत्र रघुनाथ कीर्तनं, तत्र तत्र कृतमस्तकाञ्जलिम्। वही मार्ग, वही धूल, जहाँ कभी रामचंद्र के चरण पड़े थे। शरद ऋतु की इस बेला में जब पवन में शीतलता घुल चुकी है और अनचाही वर्षा ने वातावरण को नमी और मृदुता से भर दिया है, तब भी श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ पड़ी है। मौसम की ठंड, वर्षा की बूँदें, गीली मिट्टी का सौंधापन; सब मिलकर एक अद्भुत रस रचते हैं। यह दृश्य केवल भक्ति का नहीं, बल्कि मानव आत्मा की अटूट निष्ठा का प्रतीक है।
"सीतल पवन बहै पुरबइया, हरषि राम रघुबंसदइया।" मानो स्वयं प्रकृति कह रही हो, मैं भी तेरी भक्ति में सहभागी हूँ।

विज्ञान कहता है गति जीवन है, और अध्यात्म कहता है भक्ति ही गति है। दोनों का अद्भुत संगम इस परिक्रमा में दिखाई देता है। सरयू किनारे गूंजते रामधुन के बीच जब कोई वृद्ध महिला कहती है “राम नाम सबसे बड़ा आसरा है,” तो लगता है मानो उपनिषद् की ऋचाएँ उसी स्वर में पुनर्जीवित हो उठी हों, “नान्यः पन्थाः विद्यतेऽयनाय।” (सत्य और धर्म के मार्ग के सिवा कोई अन्य पथ नहीं।) यही वह क्षण है जब आस्था अनुभव बन जाती है, और अनुभव से ही उत्पन्न होती है मुक्ति।
जेहि पर राम कृपा करि होई, तासु कथा कहि सके न कोइ।” अयोध्या की गलियों में इस समय हर स्वर में ‘राम नाम’ की गूंज है। यह परिक्रमा केवल एक परंपरा नहीं, बल्कि समय के उस अनंत वृत्त की स्मृति है जो मनुष्य को उसके अस्तित्व के केंद्र 'रामत्व' की ओर ले जाती है; जहाँ शरीर थकता है, पर आत्मा जागती है। यह परिक्रमा हमें याद दिलाती है कि भक्ति केवल पूजा नहीं, वह जीवन का संतुलन है; जहाँ श्रम में साधना है, और साधना में आनंद।

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