सच्ची मुक्ति जंगलों में नहीं, बल्कि आत्म-चिंतन में है।
कुछ लोग यह सोचते हैं कि संसार की चिंता और पीड़ा से छुटकारा पाने का एकमात्र तरीका यह है कि वे अपने परिवार और समाज को त्यागकर जंगलों या पर्वतों में शरण लें। परंतु क्या बाहरी दुनिया से दूर चले जाने मात्र से मन को शांति मिल सकती है? क्या सचमुच कोई व्यक्ति स्वयं से भाग सकता है? स्वतंत्रता का अर्थ स्थान बदलना नहीं, बल्कि मन की ग्रंथियों से मुक्त होना है। मनुष्य की आत्मा केवल शरीर में नहीं, बल्कि उसके विचारों, रिश्तों और मोह-माया में बंधी होती है। यदि वास्तविक स्वतंत्रता चाहिए, तो उसे अपने भीतर उतरना होगा, अपने मन की गहराइयों में झांकना होगा और उस शाश्वत शक्ति को जाग्रत करना होगा, जो भय से परे होती है।
"न भयम् विद्यते मॄत्योः, न जन्मनो न जीवने। यो हि आत्मानं विजानाति, स मुक्तो भवति संसारात्॥" जिसने खुद को जान लिया, वह जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो जाता है।
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| तस्वीर : संगम तट (प्रयागराज) 2024 |
जीवन में अनेक कठिनाइयाँ आएंगी; कभी बीमारी, कभी आर्थिक अभाव, तो कभी समाज के प्रहार। लेकिन भय को मन में स्थान देने का अर्थ है स्वयं को दुर्बल बना लेना। भय मनुष्य को पराजित करने का सबसे बड़ा शस्त्र है। जो डरता है, वह सदा अपने भविष्य को लेकर आशंकित रहता है, और इस कारण न तो वह स्वयं की सहायता कर पाता है, न ईश्वर की कृपा को अनुभव कर सकता है, और न ही संसार के लिए कुछ सार्थक कर पाता है। इसलिए, सच्ची मुक्ति जंगलों में नहीं, बल्कि आत्म-चिंतन में है। जब मनुष्य स्वयं को समझने का प्रयास करता है, तब उसे अपने भीतर एक ऐसी शक्ति मिलती है, जो उसे निर्भय बनाती है। जो स्वयं को जान लेता है, वही संसार में रहकर भी संसार से परे हो जाता है।


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