जीवन, एक यात्रा है — मोह से मोक्ष तक

"फितूर होता है हर उम्र में जुदा...
खिलौने, माशूका, रुतबा और फिर… खुदा!"

भी आपने सोचा है, बचपन में जो खिलौना खो जाने पर दिल रोता था, वह खिलौना क्यों अब याद भी नहीं आता? 
जवानी में जिस प्रेम ने नींदें उड़ा दी थीं, वह प्रेम एक समय बाद दिल के एक कोने में धीमे धीमे धड़कता है, अब वो उत्सव नहीं, एक अनुभूति बन चुका होता है, अब वो तूफ़ान नहीं, बल्कि एक शांत झील जैसा एहसास है।” 
और जिस रुतबे के लिए दिन-रात एक किया, जब वो मिल गया तो भी एक खालीपन रह गया? क्यों?
प्रसिद्ध अमेरिकी मनोवैज्ञानिक अब्राहम मैस्लो ने कहा था कि इंसान की ज़रूरतें पायदान की तरह होती हैं। सबसे पहले भोजन, फिर सुरक्षा, फिर प्रेम, फिर सम्मान, ...और अंत में; आत्मसाक्षात्कार। भारतीय संस्कृति इस अंतिम चरण को स्वधर्म या मोक्ष कहती है। भगवद गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं: "स्वधर्मे निधनं श्रेयः, परधर्मो भयावहः।"
जब हम अपने जीवन के आरंभिक चरणों में होते हैं, तो हमारी प्राथमिकताएँ भिन्न होती हैं।
बचपन में खिलौनों का फितूर,
यौवन में प्रेम और आकर्षण का,
प्रौढ़ावस्था में प्रतिष्ठा और पहचान का।
और जब ये सब मिल जाते हैं, तब जन्म लेता है सबसे गहरा प्रश्न, "अब क्या?"
यह प्रश्न ही आध्यात्मिकता की पहली सीढ़ी है। जब मन कहता है कि सब कुछ होने के बावजूद कुछ अधूरा है, तो भीतर से आवाज़ आती है, "क्या मैं जानता हूँ कि मैं कौन हूँ?" 
यही क्षण होता है, जब आप स्वयं की खोज में निकलते हैं। यह खुदा की तलाश है। वह खुदा चाहे निराकार ईश्वर हो, ब्रह्म हो, या फिर वह उद्देश्य हो जिसके लिए आपको जीवन मिला।
फिल्म 'Rockstar' का एक गीत है:
"तू कोई और है, जाने तू है कौन..." (यह प्रश्न बस प्रेमिका से नहीं, स्वयं से भी है।)
कभी हम प्रेम में भागते हैं, कभी नाम में। लेकिन आत्मा की भूख इनसे नहीं भरती। प्रेम के बाद भी अकेलापन, नाम के बाद भी बेचैनी, यह संकेत कि अब आपको खुद के भीतर झाँकना है। ...और शायद यही कारण है कि जब जीवन के तीन प्रमुख ‘फितूर’; खिलौने, माशूका और रुतबा पूरे हो जाते हैं, तब बचता है सिर्फ एक अंतिम आकर्षण, ईश्वर।
वहीं से शुरू होती है वह यात्रा जो हमें बाहरी दुनिया से काटती नहीं, बल्कि भीतर से जोड़ती है। जो हमारे अस्तित्व को एक दिशा देती है, एक अर्थ, एक प्रकाश। सब कुछ पाने के बाद जो बाकी रह जाता है, वही वास्तव में 'आप' होते हैं। और यही वह पड़ाव है जहाँ आप अपने ‘स्वधर्म’ से मिलते हैं।

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