माता, पिता और आचार्य - ये तीन स्तंभ हैं जिन पर मनुष्य के अस्तित्व का आधार टिका है।
“नास्ति मातृसमा छाया, नास्ति पितृसमो गति:।
नास्ति गुरु: समं तत्त्वं, नास्ति ज्ञानं समं धनम्॥”
माता, पिता और आचार्य - ये तीन स्तंभ हैं जिन पर मनुष्य के अस्तित्व का आधार टिका है। माता भाव का सागर है, पिता संबल का पर्वत, और आचार्य ज्ञान का सूर्य। परंतु इन तीनों के साथ जो चौथा तत्व है, वह है; भाषा, जो हमारे विचारों की अभिव्यक्ति का माध्यम है, और संस्कृति की आत्मा।
भाषा केवल शब्दों का समूह नहीं, यह वह नाद-ब्रह्म है, जिसकी गूंज से सभ्यता जन्म लेती है। “वागर्थाविव संप्रुक्तौ वागर्थप्रतिपत्तये”
सीता-राम की तरह शब्द और अर्थ का अविभाज्य संबंध है।
भाषा हमें अपने मूल से जोड़ती है। संस्कृत हो या अवधी, तमिल हो या हिंदी; प्रत्येक भाषा में ऋग्वेद का यह स्वर गूंजता है, “वाचं जनयन्तो नमसा विदेम”
अर्थात् हम वाणी का सृजन करते हुए नम्रता से प्रणाम करते हैं।
पाश्चात्य दार्शनिक सॉक्रेटीस ने कहा था, “The beginning of wisdom is the definition of terms.” अर्थात भाषा का ज्ञान ही विचार का आरंभ है।
रामायण के वशिष्ठ कहते हैं, “वाणी ही मनुष्य की पहचान है।” वही भाव शेक्सपियर ने भी कहा, “Words are the dress of thought.”
महात्मा गांधी ने मातृभाषा को आत्मा का दर्पण कहा।
भाषा का विनाश संस्कृति का अंधकार है, जैसा कि टैगोर ने लिखा, “Language is the vessel of spirit.”
जब तुलसी ने कहा:
“बिनु भाषा विवेक न होई, गुरु गोविंद न पाय।”
तो यह केवल शब्द नहीं थे, यह चेतना का उद्घोष था।
भाषा हमें जोड़ती है; भाव से, संस्कृति से, परमात्मा से।
यही वह सेतु है जो मातृस्नेह, पितृनीति और आचार्यज्ञान को एक सूत्र में पिरोता है।
भाषा - विचार की गंगा, संस्कृति का दीपक, और अस्तित्व की वाणी है।
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